We News 24 Hindi / दीपक कुमार
नमस्कार! आप देख रहे हैं वी न्यूज 24, और मैं हूँ दीपक कुमार।
आज हम आपको लेकर चलेंगे पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित एक बेहद प्रसिद्ध और आध्यात्मिक स्थल, तारापीठ मंदिर। यह मंदिर न केवल बंगाल, बल्कि पूरे भारत में श्रद्धालुओं और तांत्रिक साधकों के लिए एक विशेष स्थान रखता है। आइए जानते हैं इस पवित्र धाम के बारे में।
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बंगाल की पहचान महाकाली प्रदेश के रूप में रही है। यहां के लोग सदियों से शक्ति के उपासक रहे हैं। यही वजह है कि हर घर में शक्ति की देवी काली-दुर्गा की पूजा की जाती है। राजधानी कोलकाता में कालीघाट और दक्षिणेश्वर मंदिर इसका प्रमाण हैं, वहीं रामकृष्ण परमहंस और मां शारदा की तपस्वी शक्ति से हम सभी परिचित हैं। जब आप कोलकाता आएं तो इन दोनों जगहों पर जरूर जाएं। चाहे आपकी रुचि आध्यात्म में हो या न हो, यहां की संस्कृति को महसूस करने के लिए आध्यात्मिक जगहों पर जाना जरूरी हो जाता है।
हम कई बार कहते हैं'जय काली कलकत्ता वाली, तेरा वचन न जाए खाली'...। लेकिन यह बंगाल के लोगों की आध्यात्मिक आस्था को पूरी तरह दर्शाता है। सिर्फ़ कोलकाता ही नहीं, बंगाल के कई स्थानों पर माँ काली विराजमान हैं, जो तीर्थयात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। ऐसा ही एक तीर्थस्थल है तारापीठ, जो महानगर कोलकाता से लगभग 222 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में स्थित तारापीठ शक्तिपीठों का स्थान है। जानकारी केलिए बता दूँ कि भारत की 51 शक्तिपीठों में से पांच शक्तिपीठ इसी जिले में स्थित हैं जो बाकुरेश्वर, नलहाटी, बांदीकेश्वरी, फुलोरा देवी और तारापीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से तारापीठ सबसे प्रमुख धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ सिद्धपीठ भी है।
तारापीठ का पौराणिक सन्दर्भ
जब माता सती ने अपने पिता द्वारा शिव का अपमान करने पर यज्ञ की अग्नि में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए, तब शिव ने महातांडव करना शुरू कर दिया। वे अपनी माता के शव को कंधे पर रखकर तांडव करते हुए ब्राह्मण का नाश करने को आतुर हो गए। तब भगवान विष्णु ने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से माता के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस तरह माता सती के शरीर के अंग देश के विभिन्न भागों में गिरे। हिंदुओं के इस महान तीर्थ में माता सती की आंख की पुतली का तारा गिरा था। इसी कारण इसका नाम तारापीठ पड़ा।
तारापीठ राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि का सिद्धासन भी है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में महर्षि वशिष्ठ ने यहां मां तारा की आराधना कर सिद्धियां प्राप्त की थीं। उस समय उन्होंने एक मंदिर बनवाया था लेकिन समय के साथ वह मंदिर जमीन के नीचे डूब गया। बाद में 'जयव्रत' नामक एक व्यापारी ने इसका पुनर्निर्माण करवाया।
सिद्धसंत वामाखेपा यहाँ हैं विख्यात
जिस प्रकार रामकृष्ण परमहंस के समक्ष मां काली प्रकट हुई थीं, उसी प्रकार तारापीठ के सिद्ध संत वामाखेपा को भी देवी ने दिव्य ज्ञान दिया था। श्मशान में मां महाकाली ने उनके समक्ष प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया था, इसलिए तारापीठ को तांत्रिकों के लिए भी विशेष स्थान माना जाता है।
तारापीठ से 2 किमी दूर आटला गांव है, जहां वामाखेपा का जन्म हुआ था। गरीबी और विपत्तियों से जूझते हुए उन्होंने मां की आराधना की और छोटी उम्र में ही सिद्धि प्राप्त कर ली। काली पूजा की रात को ध्यान के दौरान मां तारा वामाखेपा के समक्ष प्रकट हुईं। कहा जाता है कि मां तारा बाघ की खाल, एक हाथ में तलवार, एक हाथ में कंकाल की खोपड़ी, एक हाथ में कमल का फूल और दूसरे हाथ में शस्त्र धारण किए हुए प्रकट हुईं। उन्होंने पैरों में पायल पहनी हुई थी और उनके बाल खुले हुए थे। वामाखेपा के अनुसार, मां की जीभ बाहर निकली हुई थी और वातावरण प्रकाश और सुगंध से भर गया था।
महज 18 वर्ष की आयु में सिद्धि प्राप्त करने वाले इस संत ने 72 वर्ष की आयु में तारापीठ के महाश्मशान में प्राण त्याग दिए थे। यह स्थान अघोरियों के लिए बहुत पवित्र माना जाता है। महाश्मशान तारापीठ के मुख्य मंदिर के सामने है। दिलचस्प बात यह है कि यहां द्वारका नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है, जबकि भारत की अन्य नदियां उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हैं।
तारापीठ मंदिर और मां के चमत्कार को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। इस स्थान को तंत्र साधना के लिए उपयुक्त बताया जाता है। महाश्मशान में ही तारा देवी का पादपद मंदिर है। मान्यता है कि जो भी यहां आकर किसी मनोकामना के लिए तप करता है, उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है। यहां वामाखेपा समेत कई संतों की समाधियां हैं। इसके साथ ही आपको यहां मुंडमालनी के भी दर्शन जरूर करने चाहिए। कहा जाता है कि काली मां अपने गले की मुंडमाला यहीं छोड़कर द्वारका नदी में स्नान करने चली जाती हैं। यह एक श्मशान घाट भी है।
कैसा है माँ तारादेवी का मंदिर?
यह एक मध्यम आकार का मंदिर है जिसकी दीवारें संगमरमर से सजी हुई हैं। इसकी छत ढलानदार है जिसे ढोचला कहा जाता है। इसके प्रवेश द्वार पर की गई नक्काशी बेहद आकर्षक लगती है। मंदिर में आदिशक्ति के कई रूप दिखाए गए हैं। यहां देवी की तीन आंखें देखी जा सकती हैं जिन्हें तारा भी कहा जाता है। इसके साथ ही यहां भगवान शिव की मूर्ति भी मौजूद है। मां तारा गर्भगृह में विराजमान हैं जहां तीन फीट की धातु की मूर्ति है। मां तारा की मूल मूर्ति देवी के उग्र और क्रोधित रूप को दर्शाती है। इसमें मां तारा को बाल शिव को दूध पिलाते हुए दिखाया गया है। आपको बता दें कि यह मंदिर सुबह 4:30 बजे खुल जाता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां प्रसाद के तौर पर शराब भी चढ़ाई जाती है। तांत्रिक साधु इसे न सिर्फ मां को चढ़ाते हैं बल्कि पीते भी हैं। इतना ही नहीं यहां हर दिन जानवरों की बलि दी जाती है। तंत्र शक्ति में विश्वास रखने वालों के लिए तारापीठ का कामाख्या जितना ही महत्व है। श्मशान में जलाए गए शव का धुआं तारापीठ मंदिर के गर्भगृह तक पहुंचता है, जिससे इसका महत्व और बढ़ जाता है। तारापीठ में आकर तांत्रिकों के लिए सिद्धि प्राप्त करना बहुत आसान हो जाता है। लोग मंदिर के पास स्थित प्रेत-शिला पर अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि भगवान राम ने भी यहीं अपने पिता का तर्पण और पिंडदान किया था। देश-विदेश से पर्यटक यहां अपनी मनोकामनाएं पूरी करने आते हैं।
तारापीठ तक सड़क, रेल और हवाई मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है। यह स्थान पूर्वी रेलवे के रामपुर हॉल्ट स्टेशन से चार मील की दूरी पर स्थित है। तंत्र और अध्यात्म के इस संगम की रोमांचक यात्रा की योजना आप बना सकते हैं।
तो यह था माँ तारा का पवित्र शक्तिपीठ का संक्षिप्त परिचय। जुड़े रहिए वी न्यूज 24 के साथ! हम आपके लिए लाते रहेंगे ऐसे ही धार्मिक और रोचक स्थलों की जानकारी।तो, हमारे यूट्यूब चैनल को लाइक करें, सब्सक्राइब करें, और अपने दोस्तों के साथ शेयर करना न भूलें। साथ ही, बेल आइकन दबाना ना भूलें ताकि आपको हमारे हर नए वीडियो की नोटिफिकेशन सबसे पहले मिले।
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