- निजी स्कूलों की मनमानी ने शिक्षा को बना दिया व्यवसाय
- एनसीईआरटी किताबों की जगह महंगी पब्लिकेशन की किताबें थोपने का खेल
- शिक्षा विभाग की निष्क्रियता से बढ़ी लूट, प्रशासन मौन
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We News 24 Hindi / रिपोर्ट :-पवन साह
सीतामढ़ी जिले के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से पुस्तक मूल्य निर्धारण की समस्या वास्तव में गंभीर है और यह महंगाई के दौर में सामान्य तथा मजदूर वर्ग के लिए शिक्षा को और भी चुनौतीपूर्ण बना रही है। सरकार और शिक्षा निदेशालय के निर्देशों के अनुसार, सभी स्कूलों में एनसीईआरटी पाठ्यक्रम लागू करना अनिवार्य है, जो लागत प्रभावी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है। फिर भी, प्राइवेट स्कूलों की मनमानी इस नीति को प्रभावी ढंग से लागू होने से रोक रही है।
महंगाई की मार और शिक्षा माफिया की चाल
महंगाई के इस दौर में जब आम जनता आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दाम से पहले ही परेशान है, प्राइवेट स्कूलों की किताबों के आसमान छूते दामों ने अभिभावकों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। सरकार एवं शिक्षा निदेशालय के स्पष्ट निर्देश हैं कि विद्यालयों में एनसीईआरटी पाठ्यक्रम को अपनाया जाए, लेकिन निजी स्कूल संचालक सरकार की इस नीति को ठेंगा दिखाते हुए अपनी मर्जी से महंगे प्रकाशनों की किताबें छात्रों पर थोप रहे हैं।
सीतामढ़ी सहित कई जिलों में मनमानी का खेल
सीतामढ़ी जिले के सीमावर्ती इलाकों में स्कूल प्रशासन और प्रकाशकों के बीच एक गुप्त गठजोड़ के चलते किताबों के मूल्य मनमाने ढंग से तय किए जा रहे हैं। कमीशन सेट कर कुछ खास प्रकाशकों की किताबें लगवाई जाती हैं, जिससे सामान्य और मजदूर वर्ग के अभिभावकों पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ रहा है। हालात ये हैं कि न तो स्कूल प्रशासन सुनने को तैयार है और न ही जिला प्रशासन इस पर कोई संज्ञान ले रहा है। लिहाजा, छात्रों के माता-पिता मजबूरी में स्कूल संचालकों के तय किए गए मनमाने दामों पर किताबें खरीदने को मजबूर हैं।
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बिल नहीं, सिर्फ सादा कागज़!
जब अभिभावकों ने इन अत्यधिक महंगी किताबों के बिल मांगे, तो उन्हें किसी साधारण कागज पर हाथ से लिखकर कीमत दे दी गई, जबकि बुक स्टॉल पर बाकायदा हर कक्षा की किताबों की सूची और उनकी कीमत प्रकाशित कर दी गई थी। यही नहीं, स्कूल ड्रेस के नाम पर भी अलग-अलग स्टॉलों पर मनमानी कीमत वसूली जा रही है।
सरकार गंभीर, मगर निजी स्कूल बेखौफ!
एक ओर सरकार शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE) को लेकर संजीदा है, वहीं दूसरी ओर निजी स्कूल संचालक सरकारी आदेशों को ताक पर रखकर अभिभावकों से अनावश्यक पैसा वसूलने में लगे हैं। शिक्षा विभाग की निष्क्रियता भी इस समस्या को और बढ़ा रही है।
किताब विक्रेताओं और स्कूलों की साठगांठ
ग्राउंड रिपोर्ट्स के अनुसार, यह खेल केवल किताबों की महंगाई तक सीमित नहीं है बल्कि इसके पीछे स्कूल प्रशासन और निजी प्रकाशकों के बीच एक गहरी मिलीभगत भी है।
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स्कूलों द्वारा विशेष प्रकाशकों की किताबें अनिवार्य कर दी जाती हैं, जिन्हें केवल चुनिंदा दुकानों या स्कूलों से ही खरीदा जा सकता है।
इससे अभिभावकों को ऊँचे दामों पर किताबें खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है।
इस प्रक्रिया में स्कूल प्रशासन और प्रकाशकों को भारी कमीशन मिलता है, जबकि आम जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ता है।
शिक्षा के नाम पर शोषण से अभिभावक परेशान
शिक्षा के बाजारीकरण ने अभिभावकों के सामने एक गंभीर संकट पैदा कर दिया है। यह केवल किताबों तक सीमित नहीं है बल्कि एडमिशन फीस, यूनिफॉर्म और अतिरिक्त चार्ज के नाम पर अभिभावकों से अवैध रूप से वसूली की जा रही है। सरकार और प्रशासन हर साल केवल कागजी आदेश जारी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती।
सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत
सभी निजी स्कूलों को केवल एनसीईआरटी किताबें लागू करने के निर्देश दिए जाएं और उनकी नियमित जाँच की जाए।
किताबों की बिक्री के लिए पारदर्शी व्यवस्था बनाई जाए, जिससे कोई भी स्कूल अपने मर्जी से महंगी किताबें न बेच सके।
मनमानी फीस और अतिरिक्त वसूली पर सख्त नियंत्रण लगाया जाए।
शिकायतों की सुनवाई के लिए जिला स्तर पर शिक्षा हेल्पलाइन नंबर जारी किया जाए।
नियमों का उल्लंघन करने वाले स्कूलों पर कड़ी कानूनी कार्रवाई हो।
सरकार और शिक्षा विभाग को चाहिए कि वे इस मनमानी और अवैध वसूली के खिलाफ कड़ा कदम उठाएं, ताकि आम जनता को इस आर्थिक शोषण से राहत मिल सके। जब तक प्रशासन इस पर सख्ती नहीं करेगा, तब तक शिक्षा के नाम पर अभिभावकों को लूटने का यह गोरखधंधा चलता रहेगा।
(लेखक: दीपक कुमार, पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता)
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