We News 24 Hindi / रिपोर्ट: वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार
दिल्ली, देश की राजधानी—जहाँ एक तरफ एक लाख करोड़ का बजट पेश होता है, वहीं दूसरी तरफ लोग एक-एक बूंद पानी के लिए तड़प रहे हैं। दक्षिणी दिल्ली, खासकर छत्तरपुर जैसे इलाकों में पानी का संकट इतना गंभीर हो चुका है. लोग भीषण गर्मी से परेशान हैं, वहीं पानी को लेकर हाहाकार मचा हुआ है .कि आम आदमी से टैंकर माफिया के चंगुल में फंस चुका है। 4000 लीटर पानी के लिए लोग 2500 रुपये तक चुकाने को मजबूर हैं।
केजरीवाल सरकार में भी प्यासे थे, अब बीजेपी सरकार में भी तरस रहे हैं
एक समय था जब दिल्ली में पानी संकट के लिए हर ओर केजरीवाल सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाता था। पानी संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा था।
दक्षिणी दिल्ली से बीजेपी सांसद रामवीर सिंह बिधूड़ी हर जनसभा में माइक पर चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे—
"हमारी सरकार आई तो पानी की हर समस्या का हल निकलेगा!"
लेकिन अब जब दिल्ली की सत्ता में बीजेपी है,
तो क्या बदला?
पानी आया? नहीं।
समस्या सुलझी? नहीं।
बस नेता बदल गए, भाषण वही हैं।
जनता ने उम्मीद से वोट दिया, विश्वास से सत्ता सौंपी—लेकिन नतीजा वही पुराना है—सूखी टंकी, सूनी पाइपलाइन, और टैंकर माफिया का राज।
क्या यही था "सबका साथ, सबका विकास"?
या फिर पानी की समस्या भी एक और चुनावी जुमला थी?
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करतार सिंह तंवर: वादों की राजनीति का एक और चेहरा
छत्तरपुर के विधायक करतार सिंह तंवर, जो पहले आम आदमी पार्टी में थे और फिर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए, चुनाव के समय जनता से बड़े-बड़े वादे किए थे—"छत्तरपुर को पानी संकट और ट्रैफिक जाम की परेशानी से मुक्ति दिलाएंगे।"
जनता ने भरोसा जताया, उन्हें लगातार तीसरी बार विधायक बनाया। लेकिन आज भी छत्तरपुर की गलियों में वही हाहाकार है, वही पानी के लिए कतारें हैं, और वही दफ्तरों के चक्कर हैं।
पिछले साल रामलीला चौक से लेकर आसपास के मोहल्लों तक के लोगों ने दिल्ली जल बोर्ड, जेई, एई और खुद विधायक तक को लिखित शिकायतें दीं। लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी स्थिति जस की तस है।
जल बोर्ड कहता है – "फंड नहीं है",
विधायक कहते हैं – "काम हो जाएगा",
और जनता कहती है – "कब?"
अब सवाल ये है कि जब एक सांसद, विधायक या सरकार जनता को पीने तक का पानी भी न दे सके, तो ऐसी व्यवस्था का क्या मतलब? आम जनता जाए तो जाए किसके पास? न्याय के लिए किस दरवाज़े पर दस्तक दे?
यहाँ तो वही कहावत सच साबित होती दिख रही है—
"हमाम में सब नंगे हैं।"
टैंकर माफिया: सरकार की नाक के नीचे फलता-फूलता धंधा
गर्मी शुरू होते ही दिल्ली में पानी की आपूर्ति पर सबसे पहले असर पड़ता है। जहां पहले जल बोर्ड सुबह 5:30 से 9:00 बजे तक फुल प्रेशर में पानी सप्लाई करता था, वहीं अब गर्मी के साथ वह प्रेशर भी ढीला हो गया है—अब सप्लाई सिर्फ 6:00 से 8:00 बजे तक, वो भी कम दबाव में।
कई घरों तक पानी पहुंचता ही नहीं, और जिन्हें मिलता है वो "बूंद-बूंद" में ही संतोष करना पड़ता है।
जिन इलाकों में जल बोर्ड की पानी की सप्लाई नहीं पहुँचती, वहाँ टैंकर माफिया का साम्राज्य कायम है। लोगों का खुला आरोप है कि खुद जल बोर्ड के कर्मचारी या अधिकारी इन माफियाओं से मिले हुए हैं और टैंकरों के जरिए पैसा कमाने का गोरखधंधा चला रहे हैं।
सरकारी नाकामी को व्यापार में बदल देने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा?
अब सवाल उठता है: क्या सिर्फ सरकार बदलने से व्यवस्था बदल जाती है?
आज दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जगह बीजेपी की सरकार है, लेकिन हालात वैसे के वैसे हैं। पानी के लिए जनता फिर से तरस रही है, और टैंकर माफिया पहले से ज्यादा ताक़तवर हो चुके हैं।
तो अब बीजेपी क्या कहेगी?
क्या वो भी पहले की तरह पुरानी सरकार पर दोष मढ़कर जिम्मेदारी से भाग जाएगी?
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मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता का बजट और प्यास से जूझती दिल्ली की जनता
दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने हाल ही में विधानसभा में एक लाख करोड़ रुपये का बजट पेश किया। यह बजट सुनने में जितना भारी है, जनता की उम्मीदों के मुकाबले उतना ही खोखला साबित हो रहा है।
क्योंकि उसी सरकार का जल विभाग खुलेआम कहता है—
"हमारे पास फंड नहीं है!"
अब सवाल ये है कि जब करोड़ों का बजट पास होता है, तो उसका इस्तेमाल कहां हो रहा है?
क्या उस बजट से जनता को उसका हक—पीने का साफ पानी—भी नहीं मिल सकता?
अगर सरकार सिर्फ आंकड़ों और घोषणाओं में व्यस्त है, लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि लोग एक-एक बूंद पानी को तरस रहे हैं, तो ये सरकारें सत्ता की राजनीति में मशगूल हैं, जनता की तकलीफों से नहीं।
बजट हो या बहस, कुर्सी हो या कागज़—सब कुछ हो रहा है लेकिन जनता के नाम पर, जनता के लिए कुछ नहीं।
अंत में एक सवाल…
दिल्ली की जनता को आज ये सवाल पूछना चाहिए—सरकार कोई भी हो, हमारी ज़िंदगी कब सुधरेगी? बजट के बड़े-बड़े ऐलान और चुनावी वादों के पीछे छिपी इस प्यास की कीमत कौन चुकाएगा?
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