We News 24 Hindi / रिपोर्ट :- सीनियर रिपोटर दीपक कुमार
नई दिल्ली:- मुर्शिदाबाद में नए वक्फ कानून का विरोध एक संवैधानिक आंदोलन के बजाय हिंसक भीड़ के रूप में तब्दील हो गया है, जो हिंदुओं को निशाना बना रही है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका इस हिंसा की जांच के लिए विशेष जांच दल (SIT) के गठन और ममता सरकार की जवाबदेही तय करने की मांग करती है। यह याचिका 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव बाद हुई हिंसा की जांच के लिए दायर अप्रभावी याचिका की याद दिलाती है, जहां सुनवाई में देरी और एक जज का मामले से हटना न्याय की राह में बाधा बना था। तब भीड़ की अराजकता के कारण कई हिंदू परिवार असम में शरण लेने को मजबूर हुए थे, और आज भी उनकी घर वापसी का हाल अनिश्चित है।
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मुर्शिदाबाद में भी स्थिति भयावह है। हिंसा से विस्थापित लोग मालदा और अन्यत्र शरण लेने को मजबूर हैं, लेकिन उनकी वापसी संदिग्ध है। पलायन करने वालों का अपने भविष्य को लेकर असमंजस और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का यह दावा कि "सब ठीक है," स्थिति को और जटिल बनाता है। कुछ नेता तो सीमा सुरक्षा बल (BSF) पर साजिश का आरोप लगा रहे हैं, जो सच से परे प्रतीत होता है। कलकत्ता हाई कोर्ट का केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश एक राहत है, अन्यथा हिंदू-विहीन क्षेत्रों का खतरा मंडरा रहा था। मुर्शिदाबाद, जो बांग्लादेश से सटा है और जहां हिंदू आबादी 33% तक सिमट गई है, अगली जनगणना में और कम हो सकती है, जैसा कि बंगाल के कुछ इलाकों में आबादी असंतुलन बांग्लादेश की राह पर है।
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यह आत्मरक्षा और अन्याय के प्रतिरोध के बिना नहीं बदलेगा। कश्मीरी हिंदुओं की तरह, मुर्शिदाबाद के लोग भी अपने ही देश में शरणार्थी बन सकते हैं, क्योंकि सुरक्षा बलों का हस्तक्षेप तब तक देर से होता है जब तक नुकसान हो चुका नहीं। पुलिस का मूकदर्शक रवैया नई बात नहीं—बंगाल पुलिस तृणमूल की शाखा बन चुकी है। डीजीपी राजीव कुमार, जिनके घर सीबीआई ने सारदा घोटाले की जांच में छापा मारा था और ममता बनर्जी ने इसका विरोध किया था, इसकी मिसाल हैं। चुनाव आयोग ने उन्हें हटाया, लेकिन ममता ने बहाल कर दिया।
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वक्फ कानून का विरोध, जो कथित तौर पर जमीन बचाने के लिए था, दूसरों को बेदखल करने का हथियार बन गया। यह अराजकता फैलाने का बहाना है, और मुर्शिदाबाद इसका शर्मनाक उदाहरण है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 2021 की हिंसा की जांच में कहा था कि बंगाल में कानून का शासन नहीं, शासकों का कानून है—मुर्शिदाबाद की हिंसा इसे पुष्ट करता है। वक्फ विरोधियों का दुस्साहस अन्य क्षेत्रों में भी पुलिस पर हमले के रूप में दिख रहा है। अगर सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप नहीं करता, तो देश के अन्य हिस्सों में भी यही उत्पात फैल सकता है, जैसा कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुआ था।
केंद्र सरकार का हस्तक्षेप सीमित हो सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मालदा में शरणार्थियों से मिलना चाहिए। अटल बिहारी वाजपेयी गुजरात दंगों और मनमोहन सिंह मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से मिले—मुर्शिदाबाद की बर्बरता, जो 1946 की डायरेक्ट एक्शन डे की याद दिलाती है, पर चुप्पी क्यों? शासन तंत्र की असहायता इन लोगों को घर वापस लौटने का साहस कैसे देगी? यह चेतावनी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
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क्यों यह "दंगा" नहीं, बल्कि एक "सुनियोजित सांप्रदायिक हमला" है?
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पूर्व नियोजित तैयारी — स्थानीय रिपोर्ट्स में साफ है कि हमलावर भीड़ पहले से संगठित थी।
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हिंदू परिवारों को टारगेट करना — जिनकी दुकानें जलाई गईं, घर तोड़े गए, वह सब एक खास समुदाय से थे।
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प्रशासनिक चुप्पी — ठीक वैसे ही जैसे 1946 में, इस बार भी पुलिस और प्रशासन मूकदर्शक बने रहे।
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प्रतीकात्मक हमले — जैसे मूर्तिकार की हत्या और मंदिरों को निशाना बनाना — यह केवल अपराध नहीं, संस्कृति पर हमला है।
यह डायरेक्ट एक्शन डे की याद क्यों दिलाता है?
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16 अगस्त 1946, मुस्लिम लीग द्वारा "डायरेक्ट एक्शन डे" घोषित किया गया था, जिसका नतीजा हुआ कलकत्ता का नरसंहार।
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उस समय भीड़ ने हिंदुओं को निशाना बनाया था — दुकानों को लूटा, घर जलाए और सैकड़ों को मार डाला।
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आज, मुर्शिदाबाद की घटना में वही पैटर्न दोहराया गया — नाम बदल गया है, रणनीति वही है।
निष्कर्ष:
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